Brief History of Radio – रेडियो का इतिहास

रेडियो का इतिहास

आज हम आपको रेडियो का इतिहास बारेमें बताइये गे, रेडियो एक ऐसा साधन है जिसके माध्यम से हम वायरलेस तकनीक का उपयोग करके अनेक ध्वनियों, संदेशों, संगीत, खबरों और कथाएँ सुन सकते हैं। यह एक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण है जिसका उपयोग सिग्नल के रूप में विभिन्न स्थानों से आने वाली विभिन्न जानकारियों को प्रसारित करने के लिए किया जाता है।

रेडियो का इतिहास

रेडियो, मिर्ची रेडियो, FM रेडियो, CITY FM, तड़का इन सबका नाम तो आपने सुना ही होगा। ये रेडियो चैनल्स हैं जिन्हें आज भी लोगों के द्वारा काफी पसंद किया जाता है। वैसे एक दौर था जब टेलीविजन बहुत ही कम लोगों के पास हुआ करता था और रेडियो ही मीडिया का एक पावरफुल मीडियम हुआ करता था। देश दुनिया और मनोरंजन जगत की सभी खबरें रेडियो के थ्रू ही लोगों तक पहुंचती थी। उस समय रेडियो रखना, रेडियो सुनना और रेडियो के कार्यक्रमों में भाग लेना गौरव की बात होती थी। हालांकि आज स्पॉटिफाई और यूट्यूब के दौर में रेडियो की पॉपुलैरिटी पहले से काफी कम हो गई है, लेकिन गांव में आज भी बड़े बुजुर्ग बहुत चाव से रेडियो सुनते हैं।

रेडियो की इसी इंपॉर्टेंस को देखते हुए आज हम आधुनिकता के इस दौर में रेडियो के इतिहास के बारे में जानने की कोशिश करेंगे। हम जानेंगे कि रेडियो की शुरुआत कैसे हुई? कौन है वो महान शख्स जिन्होंने रेडियो का अविष्कार किया और भारत में पहली बार रेडियो का ब्रॉडकास्ट कब शुरू हुआ?

रेडियो का इतिहास

दोस्तों सबसे पहले तो आप ये जान लीजिए कि रेडियो के अविष्कार के पीछे सिर्फ किसी एक इंसान का हाथ नहीं है बल्कि कई सारे वैज्ञानिकों ने अलग अलग समय में अपनी थ्योरी और कॉन्सेप्ट पर काम किया। तब जाकर हमारे हाथ में रेडियो नामक डिवाइस आया। ये डिवाइस इलेक्ट्रो मैग्नेटिक वेव्स पर काम करता था, जिन्हें खोजने का काम सबसे पहले ब्रिटिश साइंटिस्ट जेम्स क्लार्क मैक्सवेल ने किया था। हालांकि मैक्सवेल इन इलेक्ट्रो मैग्नेटिक वेव्स की एक्स थ्योरी नहीं दे पाए थे,

जिसके बाद ब्रिटिश साइंटिस्ट ओलिवर हैवी साइड ने इस खोज को आगे बढ़ाया। लेकिन वो भी इन वेव्स को पूरी तरह से नहीं समझ पाए थे। ऑलिवर के बाद हेनरिच रुडॉल्फ हर्ट्ज ने इन इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स पर काम करना शुरू किया और सालों तक मेहनत के बाद उन्हें इनमें सफलता मिल गई। उन्होंने इलेक्ट्रो मैग्नेटिक वेव से जुड़े उन सभी सवालों का जवाब दिया, जिसे उस समय तक साइंटिस्ट नहीं खोज पाए थे। हर्ट्ज ने इस खोज के बाद इलेक्ट्रो मैग्नेटिक वेव्स के ऊपर एक किताब भी लिखी, जिनमें इन वेव्स को लेकर की गई खोजों के बारे में विस्तार से जानकारी दी।

उस किताब के आने के बाद दुनियाभर के एक्सपर्ट्स ने उसे पढ़ा, जिनमें से जगदीशचंद्र बसु भी एक थे। उस किताब को पढ़ने के बाद साल 1895 में जगदीशचंद्र बसु ने कलकत्ता के टाउन हॉल में एक एक्सपेरिमेंट किया, जिसमें उन्होंने दिखाया कि कैसे इलेक्ट्रो मैग्नेटिक वेव्स को न केवल हवा, बल्कि दीवारों और यहां तक कि लोगों के शरीर के माध्यम से भी वायरलेस तरीके से भेजा जा सकता है। बसु के इसी एक्सपेरिमेंट की वजह से बहुत से लोग रेडियो के अविष्कार का श्रेय उन्हें ही देते हैं। जबकि बच्चों के स्कूली किताबों में रेडियो के अविष्कार के रूप में मार्कोनी को पढ़ाया जाता है।दरअसल एक तरफ जहां जगदीशचंद्र बसु इलेक्ट्रो मैग्नेटिक वेव्स को लेकर एक्सपेरिमेंट कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ इटली में गूगल में मार्कोनी थे जो इन वेव्स को समझने की कोशिश कर रहे थे और जब मार्कोनी ने इन वेव्स को पूरी तरह से समझने में कामयाबी हासिल कर ली, तब उन्होंने रेडियो के अविष्कार के रूप में अपना नाम पेटेंट करा लिया। जिस वजह से आज हम मार्कोनी को ही ऑफिशियली रेडियो के अविष्कारक मानते हैं।

US पेटेंट रिकॉर्ड के अनुसार 1896 में मारकोनी ने रेडियो का अविष्कार किया था और इसी साल उन्होंने रेडियो के अविष्कार के रूप में अपना नाम पेटेंट कराया। कहा जाता है कि जब मारकोनी लगभग 20 साल के थे तब उन्हें हेनरिच रुडॉल्फ हर्ट्ज द्वारा खोजी गई रेडियो वेव्स के बारे में पता चला था। उस समय उनके दिमाग में सबसे पहला खयाल ये आया था कि क्या हम इन रेडियो वेव्स का यूज मैसेजेस को ले जाने के लिए कर सकते हैं? अगर ऐसा होता है तो ये एक बहुत बड़ी खोज हो सकती है क्योंकि उस समय वायर की हेल्प से मोर्स कोड का यूज करके लोकेटर के थ्रू मैसेजेज भेजे जाते थे। अपने इस खयाल के बाद मार्कोनी ने इलेक्ट्रो मैग्नेटिक वेव्स पर काम करना शुरू कर दिया।

दिसंबर 1894 की रात थी जब मार्कोनी अपने घर की छत पर मौजूद लैब रूम से नीचे अपनी मां के रूम में आए। उन्होंने अपनी सोई मां को जगाया और उनसे अपने लैब रूम में चलने की जिद की। मां को पहले तो काफी अजीब लगा क्योंकि मारकोनी ने उनकी नींद खराब की थी लेकिन कहीं ना कहीं उन्हें पता था कि उनका बेटा उनकी नींद यूं ही नहीं खराब कर रहा है। जरूर कोई बड़ी बात है इसीलिए वह अपने बेटे के साथ उनके लैब रूम में चली गई। जहां पर मार्कोनी ने अपनी मां को एक घंटी दिखाई जो कुछ डिवाइसेस के बीच में टंगी हुई थी। अब मार्कोनी उस रूम के एक कोने में गए और वहां से उन्होंने 1 की दबाई जिससे हल्की सी चिंगारी की आवाज निकली और फिर अचानक से रूम में उनसे 30 फीट दूरी पर रखी घंटी बजने लगी। बिना किसी वायर के हेल्प से इतनी दूरी तक रेडियो वेव्स के साथ घंटी बजाना एक बहुत बड़ी अचीवमेंट थी। लेकिन मार्कोनी तो इससे भी कुछ बड़ा करने की सोच रहे थे। उन्होंने अपने रिसर्च को और आगे बढ़ाया और एक दिन की बात है जब मार्कोनी ने अपने बनाए हुए ट्रांसमीटर को पहाड़े की एक तरफ और रिसीवर को दूसरे साइड लगा दिया और वहां पर अपने भाई को खड़ा कर दिया ताकि उसे मैसेज मिल सके और जैसे ही उनके भाई को मैसेज मिला वह खुशी से नाचने लगा। अपने भाई की इस खुशी को देखकर मार्कोनी को यकीन हो गया कि उनकी मशीन काम कर रही है।

अपने इसी एक्सपेरिमेंट को आगे बढ़ाने के लिए मार्कोनी ने फाइनेंशियल हेल्प के लिए इटली सरकार के पोस्ट और। टेलीग्राफ डिपार्टमेंट से अपील की, लेकिन उन्होंने मदद देने से इनकार कर दिया। लेकिन मार्कोनी निराश नहीं हुए। 22 साल की उम्र में वह अपनी मां के साथ इंग्लैंड आ गए, जहां पर 1896 के बीच 1979 उन्होंने अपने द्वारा बनाए गए डिवाइसेज से वायरलेस वायर से जुड़े कई सक्सेसफुल एक्सपेरिमेंट किए। 1897 में मारकोनी 20 मील तक रेडियो मैसेज भेजने में कामयाब रहे, जिसके बाद पूरे यूरोप में मार्कोनी का नाम का डंका बजने लगा। और ऐसा हो भी क्यों ना। बिना वायर के मैसेज भेजने का इंसानों का सपना अब पूरा होने जा रहा था।

मारकोनी के बाद कैनेडियन साइंटिस्ट रेजिनाल्ड सेंडर ने 24 दिसंबर 1906 को रेडियो ब्रॉडकास्टिंग के थ्रू मैसेज भेजकर रेडियो की शुरुआत की थी। उस समय रेजिनाल्ड ने वायलिन बजाकर उसकी धुन को रेडियो वेव्स के थ्रू एटलांटिक ओशन में तैर रहे शिप्स तक पहुंचाया था। इसके बाद रेडियो का यूज मैसेज को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने के लिए नेवी में होने लगा। हालांकि बाद में फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के समय रेडियो के इस्तेमाल को इललीगल बताया गया और इसके इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी गई। लेकिन बाद में इसकी यूटिलिटी को देखते हुए बीबीसी जैसी कई बड़ी कंपनी ने पॉडकास्टिंग के लिए रेडियो का यूज करना शुरू कर दिया।

अगर अपने भारत की बात करें तो यहां सबसे पहले साल 1924 में मद्रास प्रेसिडेंसी क्लब रेडियो को लेकर आया था। इस क्लब ने साल 1927 तक रेडियो के थ्रू ब्रॉडकास्टिंग का काम किया। पर बाद में आर्थिक परेशानियों की वजह से मद्रास क्लब ने ब्रॉडकास्टिंग का काम बंद कर दिया। जिसके बाद इसी साल 1927 में बॉम्बे के कुछ बड़े बिजनेसमैन ने मिलकर बॉम्बे और कोलकाता में एक इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी शुरू की।

1932 आते आते इस कंपनी की जिम्मेदारी भारत सरकार ने ले ली और इंडियन ब्रॉडकास्टिंग सर्विस नाम का डिपार्टमेंट शुरू किया, जिसका साल 1936 में नाम बदलकर ऑल इंडिया रेडियो रख दिया गया।

दोस्तों, रेडियो ने भारत की आजादी में भी अपनी अहम भूमिका निभाई थी। आपको बता दें साल 1942 में नेशनल कांग्रेस रेडियो की ब्रॉडकास्टिंग शुरू की गई थी। तब स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले महात्मा गांधी जी ने इसी रेडियो स्टेशन से अंग्रेजों भारत छोड़ो का ब्रॉडकास्ट किया था। यहीं नहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी स्वतंत्रता आंदोलन के समय तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा का पॉपुलर नारा रेडियो के थ्रू जर्मनी में दिया था।

भारत की आजादी के बाद साल 1957 ऑल इंडिया रेडियो का नाम बदलकर आकाशवाणी रख दिया गया। वही रेडियो अब FM  का रूप ले चुका है और एक लार्ज कम्युनिकेशन नेटवर्क के रूप में पूरी दुनिया भर में फैला हुआ है। दोस्तों, दुनिया का सबसे पहला रेडियो स्टेशन साल 1918 में न्यूयॉर्क के हाई ब्रिज इलाके में द फॉरेस्ट नाम से शुरू किया गया था। लेकिन बाद में पुलिस ने इसे गैरकानूनी कहकर इसको बंद करवा दिया था। हालांकि बाद में नवंबर 1920 में नेवी के रेडियो डिपार्टमेंट में काम कर चुके फ्रैंक कोनार्ड को कानूनी तौर पर रेडियो स्टेशन की शुरुआत करने की इजाजत मिल गई और इस तरह रेडियो पर लगी रोक को हटा दिया गया। दोस्तों आपके लिए यह जानना सरप्राइजिंग होगा कि शुरुआत में लोगों को अपने पास रेडियो को रखने के लिए ₹10 में लाइसेंस भी खरीदना पड़ता था पर बाद में इस नियम को हटा दिया गया। जिसके बाद से रेडियो देश दुनिया में संचार का एक बहुत बड़ा और पावरफुल मीडिया बनता चला गया। वैसे दोस्तों क्या रेडियो कभी आपके जीवन का हिस्सा रहा है?

Leave a Comment